10 अगस्त 1963— यह तारीख सिर्फ एक महिला के जन्म का दिन नहीं, बल्कि एक ऐसे सफर की शुरुआत है जिसने भारतीय समाज, राजनीति और न्याय की परिभाषाओं को हिला कर रख दिया। यह कहानी है फूलन देवी की — उस महिला की, जिसने गरीबी, जातिगत अन्याय और स्त्री होने की पीड़ा को सहा, और फिर चंबल के बीहड़ों से निकलकर संसद के पटल तक अपना नाम दर्ज कराया।
गोरहा की बेटी: फूलन देवी के संघर्ष और प्रतिशोध की शुरुआत
फूलन देवी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरहा के पुरवा गांव में मल्लाह जाति के एक बेहद गरीब परिवार में हुआ। महज़ 11 साल की उम्र में उनका विवाह उनसे 29 साल बड़े व्यक्ति से कर दिया गया। शादी के बाद भी उन्हें सुकून नहीं मिला और वह अपने मामा के घर चली गईं, लेकिन वहां भी शोषण और अपमान उनका पीछा करता रहा। बचपन से ही अन्याय के खिलाफ उनकी बगावत ने गांव के दबंगों और पुलिस दोनों को उनके खिलाफ खड़ा कर दिया और यहीं से शुरू हुई उनकी संघर्ष और प्रतिशोध की कहानी।
विक्रम मल्लाह और फूलन मल्लाह गैंग का उदय
पुलिस की यातना, बलात्कार और समाज की कटु टिप्पणियों के बीच, फूलन देवी ने पहली बार चंबल के डाकुओं से हाथ मिलाया। विक्रम मल्लाह के साथ मिलकर उन्होंने कुख्यात फूलन मल्लाह गैंग बनाया। बीहड़ों की पगडंडियों पर उनकी पहचान एक ऐसी महिला डाकू के रूप में बनी, जो अमीरों से लूटकर गरीबों में बांटती थी — मानो भारतीय रॉबिन हुड। लेकिन 1981 का बहमई कांड सब कुछ बदल देने वाला साबित हुआ। ठाकुर जाति के 22 लोगों की हत्या का आरोप उनके सिर पर आया और इस घटना ने फूलन देवी को डाकू से दंतकथा में बदल दिया।
प्रतिशोध से आत्मसमर्पण तक: फूलन देवी की बहमई कांड से अदालत तक की कहानी
फूलन देवी का कहना था कि बहमई कांड में हुई हत्याएं उनके साथ हुए सामूहिक बलात्कार और जातिगत अपमान का बदला थीं। इस घटना के बाद वह उत्तर प्रदेश की ‘मोस्ट वांटेड’ अपराधी बन गईं, लेकिन निचली जातियों की नजर में वह एक नायिका और प्रतिशोध की प्रतीक थीं।
लगातार भागते रहना, थकान और मौत के साए ने आखिरकार उन्हें आत्मसमर्पण के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। मगर उन्हें यह भी डर था कि समर्पण के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस उन्हें मार देगी। यही कारण था कि आत्मसमर्पण की सौदेबाजी मध्य प्रदेश सरकार के साथ की गई, ताकि उनका अंत मुठभेड़ में न होकर अदालत में हो।
फूलन देवी: बीहड़ों की रानी से संसद तस और फिर गोलियों तक का सफर
13 फरवरी 1983 को मध्य प्रदेश के भिंड में, हजारों की भीड़ और मीडिया के कैमरों के सामने, फूलन देवी ने अपनी बंदूक मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के चरणों में रख दी। माथे से बंदूक लगाकर नीचे रखने का वह क्षण भारतीय अपराध और राजनीति के इतिहास का एक ऐतिहासिक दृश्य बन गया। इसके बाद उन्हें 11 साल जेल में रहना पड़ा। 1994 में रिहाई के बाद समाजवादी पार्टी ने उन्हें राजनीति में उतारा। 1996 में वह मिर्जापुर से सांसद चुनी गईं और महिलाओं की आवाज बन गईं। सड़क से लेकर संसद तक, उन्होंने स्त्री अधिकारों और हिंसा के खिलाफ डटकर आवाज उठाई। लेकिन, चंबल के बीहड़ों में जिनसे उन्होंने दुश्मनी मोल ली थी, वे भुला नहीं पाए। 25 जुलाई 2001 को दिल्ली में उनके सिर में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई और इस तरह एक साहसी लेकिन विवादास्पद जीवन का अंत हुआ।