CJI B R Gavai Speech: भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी. आर. गवई ने आज जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित डॉ. एलएम सिंघवी स्मृति व्याख्यान में शिरकत की. यहां उन्होंने “मानव गरिमा संविधान की आत्मा: 21वीं सदी में न्यायिक चिंतन” विषय पर अपने विचार व्यक्त किए. इस अवसर पर उन्होंने संविधान में निहित मानव गरिमा के महत्व को रेखांकित किया और इसे भारतीय संविधान की आत्मा बताया. व्याख्यान में बड़ी संख्या में सांसद, जिनमें से कई सुप्रीम कोर्ट के वकील भी हैं, उपस्थित थे. CJI ने उनका स्वागत करते हुए कहा कि इस विषय पर दिन में पहले भी चर्चा हो चुकी है, इसलिए वह इसे संक्षिप्त रखेंगे.
संविधान और डॉ. आंबेडकर का योगदान
CJI बी. आर. गवई ने कहा कि वह आज जिस प्रतिष्ठित पद पर हैं, वह भारतीय संविधान और डॉ. बी. आर. आंबेडकर के दूरदर्शी दृष्टिकोण के कारण संभव हुआ. उन्होंने बताया कि संविधान निर्माताओं के लिए मानव गरिमा एक केंद्रीय चिंता थी. विभिन्न प्रकार के सामाजिक अपमानों को देखते हुए संविधान को एक समाधान के रूप में रचा गया. संविधान का पाठ स्पष्ट रूप से गरिमा को स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय जैसे मूलभूत मूल्यों के साथ जोड़ता है. CJI ने कहा कि जब प्रत्येक नागरिक की गरिमा को मान्यता दी जाती है और उसकी रक्षा की जाती है, तो यह समाज में अपनेपन, आपसी सम्मान और एकजुटता की भावना को जागृत करता है, जो राष्ट्रीय एकता और सद्भाव के लिए आवश्यक है.
भारतीय संविधान में मानव गरिमा की भूमिका
CJI बी. आर. गवई ने जोर देकर कहा कि संविधान ने गरिमा को इन परस्पर संबंधित मूल्यों के केंद्र में रखकर एक ऐसे समाज की कल्पना की, जहां हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग या पृष्ठभूमि का हो, सम्मानजनक जीवन जी सके. उन्होंने कहा कि व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करना एक प्रत्यक्ष प्रतिबद्धता है, जो यह दर्शाती है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अंतर्निहित मूल्य है. विशेष रूप से, डॉ. आंबेडकर ने बंधुत्व को न केवल एक सामाजिक आदर्श, बल्कि लोकतंत्र की एक अंतर्निहित विशेषता के रूप में परिभाषित किया था. उन्होंने बंधुत्व को लोकतंत्र का दूसरा नाम बताया, जो सामाजिक एकता और समानता के लिए आवश्यक है.
मौलिक अधिकारों में गरिमा का समावेश
CJI बी. आर. गवई ने स्पष्ट किया कि यद्यपि संविधान के भाग III में, जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख है, गरिमा शब्द का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है, लेकिन न्यायपालिका ने अपनी सुसंगत व्याख्या के माध्यम से इसे मौलिक अधिकारों के आधारभूत सिद्धांत के रूप में मान्यता दी है. मानव गरिमा के प्रतिबिंब संविधान के विभिन्न प्रावधानों में स्पष्ट हैं. उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 14 के तहत मनमानी पर प्रतिबंध यह सुनिश्चित करता है कि राज्य की कार्रवाइयां तर्कसंगत, निष्पक्ष और समान हों, जिससे व्यक्ति के आत्म-सम्मान की रक्षा होती है. इसी तरह, अनुच्छेद 14 और 15 के तहत भेदभाव के खिलाफ अधिकार, और अनुच्छेद 16 के तहत अवसर की समानता की गारंटी, जाति, धर्म, लिंग या अन्य व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर असमान व्यवहार को रोककर प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा की पुष्टि करते हैं.
स्वतंत्रता और अनुच्छेद 19-21 की भूमिका
CJI बी. आर. गवई ने कहा कि गरिमा अनुच्छेद 19 में निहित स्वतंत्रता को भी रेखांकित करती है, जो व्यक्तियों को स्वयं को अभिव्यक्त करने, संगठन बनाने और स्वतंत्र रूप से घूमने की स्वायत्तता प्रदान करती है. सबसे महत्वपूर्ण, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यापक व्याख्या की गई है, जिसमें व्यक्तिगत स्वायत्तता, शारीरिक अखंडता और अपमानजनक व्यवहार से स्वतंत्रता सहित सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है. सामूहिक रूप से, ये संवैधानिक प्रावधान दर्शाते हैं कि मानव गरिमा का संरक्षण और संवर्धन मौलिक अधिकारों के ढांचे में एक एकीकृत सिद्धांत है.
मानव गरिमा के सिद्धांत की न्यायिक मान्यता
CJI बी. आर. गवई ने कहा कि भारत में मानव गरिमा के सिद्धांत की न्यायिक मान्यता 1970 के दशक के उत्तरार्ध में मूर्त रूप लेने लगी, जब देश भर की जेलों में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार की व्यापक शिकायतें सामने आईं. अदालतों ने माना कि स्वतंत्रता से वंचित करना अपमान, यातना या अमानवीय व्यवहार को उचित नहीं ठहराता. इस दौरान, न्यायपालिका ने अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की व्याख्या को केवल प्रक्रियात्मक सुरक्षा तक सीमित न रखकर, सम्मानजनक जीवन की गारंटी के रूप में विस्तारित किया.
CJI ने किया सुनील बत्रा मामले का उल्लेख
CJI बी. आर. गवई ने सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन मामले का उल्लेख किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने विचाराधीन कैदियों, दोषियों और मृत्युदंड की सजा पाए व्यक्तियों के साथ अमानवीय व्यवहार का गंभीरता से संज्ञान लिया था. जस्टिस कृष्णा अय्यर ने जोर देकर कहा था कि जेल न्यायशास्त्र का मानवीय दृष्टिकोण यह मांग करता है कि किसी भी जेल प्राधिकरण को संवैधानिक दायित्वों से छूट न दी जाए. उन्होंने कहा कि मौलिक अधिकारों का जबरन हनन एक संस्थागत अपमान है. न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कानून की नजर में कैदी व्यक्ति हैं, पशु नहीं, और यह न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह जेल प्रणाली के उन संरक्षकों को जवाबदेह बनाए जो कैदियों की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं.