भारतीय किसानों ने नासा के सैटेलाइट को दिया चकमा, पराली को लेकर किया ये काम वैज्ञानिक भी हैरान  

Aarti Kushwaha
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Reporter The Printlines (Part of Bharat Express News Network)
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India stubble burning: उत्तर भारत में हर साल अक्टूबर से दिसंबर के बीच धुएं की मोटी चादर छा जाती है. दरअसल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में धान की कटाई के बाद किसान पराली जलाते हैं, जिसका सीधा  प्रभाव दिल्ली-एनसीआर समेत पूरे इंडो-गंगेटिक प्लेन की हवा पर पड़ता है. लेकिन इस साल पराली जलाने के तरीकों में बड़ा बदलाव देखा गया है, जिससे न सिर्फ आम लोग बल्कि नासा के वैज्ञानिक और निगरानी एजेंसियां भी हैरान है.

पराली जली, लेकिन सैटेलाइट से बच निकली

दरअसल अब तक वैज्ञानिकों का मानना था कि ज्यादातर पराली दोपहर के वक्त, करीब 1 से 2 बजे के बीच जलाई जाती है. इसी दौरान नासा के सैटेलाइट, खासकर MODIS जैसे सेंसर, धरती की निगरानी करते हैं और आग के आंकड़े जुटाते हैं. लेकिन हाल के वर्षों में तस्वीर बदल गई है. नासा से जुड़े वायुमंडलीय वैज्ञानिक हिरेन जेठवा के मुताबिक, अब किसान पराली शाम 4 से 6 बजे के बीच जला रहे हैं परिणामस्‍वरूप कई आग सैटेलाइट रिकॉर्ड में दिख ही नहीं पातीं. यानी खेत में आग जलती रहती है, लेकिन ऊपर से देखने पर तस्वीर साफ नहीं होती.

नए सैटेलाइट ने खोला पूरा खेल

इस बदलाव का पता तब चला जब दक्षिण कोरिया का GEO-KOMPSAT-2A सैटेलाइट हर 10 मिनट में डेटा इकट्ठा कर रहा था.  इसके विश्लेषण से स्‍पष्‍ट हुआ कि पराली जलाने का समय अब दोपहर से खिसककर शाम में पहुंच चुका है. इसी तरह ISRO और iForest जैसी संस्थाओं के अध्ययन भी यही बताते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, 2020 में जहां पराली जलाने का चरम समय दोपहर 1:30 बजे था, वहीं 2024 तक यह शाम 5 बजे के आसपास पहुंच गया.

2025 में हालात कैसे रहे?

बतादें कि इस साल पराली जलाने की घटनाएं न तो बहुत ज्यादा रहीं और न ही बहुत कम, लेनिक साल 2021, 2022 और 2023 से बेहतर रहा और 2024 और 2020 से खराब. इसके बावजूद नवंबर 2025 में कई दिन ऐसे आए जब दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 400 के पार चला गया. हालात इतने बिगड़ गए कि स्कूल बंद करने पड़े और कई जगहों पर निर्माण कार्य रोकना पड़ा.

शाम की आग होती है ज्‍यादा खतरनाक

प्रदुषण का कारण सिर्फ पराली का धुआं ही नहीं होता, इसमें गाड़ियों, फैक्ट्रियों, घरेलू ईंधन, पटाखों और धूल का प्रदूषण भी मिल जाता है. वैज्ञानिकों के अनुसार, किसी एक दिन पराली का योगदान 40 से 70 प्रतिशत तक हो सकता है, जबकि पूरे सीजन में यह औसतन 20 से 30 प्रतिशत रहता है. वहीं, शाम को जली आग ज्यादा नुकसान करती है क्योंकि रात के वक्त हवा की ऊंचाई कम हो जाती है और हवाएं भी धीमी पड़ जाती हैं. ऐसे में प्रदूषण जमीन के पास ही फंसा रह जाता है और सुबह तक हालात और बिगड़ जाते हैं.

क्या वाकई नासा को दिया गया चकमा?

जानकारों का मानना है कि किसान सीधे तौर पर नासा को चकमा देने के इरादे से नहीं, बल्कि स्थानीय निगरानी, जुर्माने और कार्रवाई से बचने के लिए पराली जलाने का वक्त बदल रहे हैं. लेकिन इसका असर यह हुआ है कि सैटेलाइट आंकड़ों और जमीनी हकीकत के बीच दूरी बढ़ती जा रही है. यही वजह है कि वैज्ञानिकों का मानना है कि पराली जलाने का टाइमिंग गेम वायु प्रदूषण की लड़ाई को और मुश्किल बना रहा है.

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