अगर किसी देश की आत्मा को जानना हो, तो देखिए वो अपनी बेटियों के साथ कैसा व्यवहार करता है. राष्ट्रीय वार्षिक हितधारक परामर्श सम्मेलन में यह बात भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की जगह अब उनके उत्तराधिकारी न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने कही. इस कार्यक्रम का विषय था बालिकाओं की सुरक्षा, जिसका आयोजन सर्वोच्च न्यायालय की किशोर न्याय समिति और यूनिसेफ इंडिया के सहयोग से किया गया.कार्यक्रम में महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरथना, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला, और देशभर से आए उच्च न्यायालयों व जिला न्यायपालिका के सदस्य उपस्थित थे.
क्या हमारी बेटियाँ सच में सुरक्षित?
मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा कि किसी देश की ताकत उसकी बेटियों की सुरक्षा और सशक्तिकरण से तय होती है. उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा, “क्या हम यह कह सकते हैं कि हमारे बच्चे, खासतौर पर हमारी बेटियाँ, पूरी तरह सुरक्षित हैं? क्या सुरक्षा उस जगह संभव है, जहाँ गरिमा छीनी जाती है, आवाजें दबा दी जाती हैं या सपनों को हालातों से बाँध दिया जाता है?” गवई ने आगे कहा कि बालिका की सुरक्षा का मतलब सिर्फ ‘संरक्षण’ नहीं, बल्कि सशक्तिकरण भी होना चाहिए, ताकि हर लड़की को देखा, सुना और महत्व दिया जा सके.
संविधान ने पहले ही तय कर दी थी दिशा
CJI गवई ने संविधान के इतिहास की याद दिलाते हुए कहा कि महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष सुरक्षा का विचार भारत की आज़ादी के समय से ही संविधान में शामिल किया गया था. संविधान निर्माताओं ने राज्य को यह शक्ति दी कि वह महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष कानून बना सके, क्योंकि उन्हें पता था कि बाल शोषण, गरीबी और शिक्षा की कमी जैसी चुनौतियाँ हमारे समाज की जड़ में हैं.
उन्होंने आगे कहा कि अगर अनुच्छेद 15(3) न होता, तो बाल श्रम और किशोर न्याय जैसे कानूनों को भेदभावपूर्ण कहकर चुनौती दी जा सकती थी. बच्चे तब भी कमजोर थे और आज भी हैं. इसलिए राज्य का यह दायित्व है कि वह उन्हें सिर्फ हानि से न बचाए, बल्कि ऐसे हालात बनाए जिनमें वे आगे बढ़ सकें.
संविधान की आत्मा का हिस्सा
गवई ने कहा कि हर लड़की को सुरक्षा, सम्मान और अवसर देना संविधान के “परिवर्तनकारी दृष्टिकोण” का हिस्सा है. किसी लड़की की रक्षा का मतलब है उसकी आवाज़, उसकी जिज्ञासा और उसकी आत्म-सम्मान की रक्षा करना. जब कानून और संस्थान ऐसा माहौल बनाते हैं, तो वे केवल एक लड़की की रक्षा नहीं करते, बल्कि गणराज्य के वादे को निभाते हैं.”
कानून होते हुए जमीनी दूरी
मुख्य न्यायाधीश ने स्वीकार किया कि भारत ने बीते दशकों में किशोर न्याय अधिनियम, बाल विवाह निषेध कानून और POCSO अधिनियम जैसे कई कानून बनाए हैं, जो बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करते हैं. लेकिन हकीकत यह है कि देश के कई हिस्सों में अब भी लाखों बच्चियाँ अपने मूल अधिकारों से वंचित हैं. वे बाल विवाह, शोषण, तस्करी, लिंग आधारित गर्भपात और कुपोषण जैसी स्थितियों में जीने को मजबूर हैं.”
तकनीक वरदान व खतरा दोनों
गवई ने डिजिटल युग के नए खतरों की ओर भी ध्यान दिलाते हुए कहा, “तकनीक ने विकास को तेज़ किया है, लेकिन इसने नई कमजोरियाँ भी पैदा की हैं. अब खतरे सिर्फ सड़कों पर नहीं, बल्कि स्क्रीन पर भी हैं. साइबर बुलिंग, ऑनलाइन उत्पीड़न, डिजिटल पीछा करना, डेटा चोरी और डीपफेक जैसी तकनीकें लड़कियों के लिए गंभीर चुनौती बन रही हैं.” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि पुलिस, शिक्षक, स्वास्थ्यकर्मी और प्रशासनिक अधिकारी सभी को समय के हिसाब से संवेदनशील और प्रशिक्षित होना चाहिए. अगर हम तकनीकी विकास को नैतिक सुरक्षा के साथ नहीं जोड़ेंगे, तो वही तकनीक, जो आजादी का साधन है, कल शोषण का जरिया बन जाएगी.”
सिर्फ सरकार नहीं, समाज की भी जिम्मेदारी
गवई ने कहा कि बच्चों की सुरक्षा सिर्फ कानून या न्यायपालिका का दायित्व नहीं है. अक्सर लोग नहीं जानते कि अगर किसी बच्ची के साथ अत्याचार हो रहा है तो क्या करें. यह अनभिज्ञता भी अपराध जैसी है. इसलिए जरूरी है कि हर नागरिक जागरूक हो. उन्होंने ग्रामीण इलाकों, स्कूलों और पंचायतों तक पहुँचने वाले विस्तृत जन-जागरूकता अभियानों की जरूरत पर बल दिया, ताकि देश का हर नागरिक समझ सके कि ऐसी स्थिति में क्या कदम उठाना है.
अधिकारों को लागू करना सरकार का दायित्व
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि न्यायपालिका नागरिकों को अधिकार दिला सकती है, लेकिन उन्हें ज़मीन पर लागू करना कार्यपालिका की जिम्मेदारी है. उन्होंने महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार और न्यायपालिका मिलकर ही इस दिशा में ठोस बदलाव ला सकती हैं.
टैगोर की कविता से दी सीख
अपने भाषण के अंत में गवई ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता “जहाँ मन भयमुक्त है” का ज़िक्र किया. उन्होंने कहा, “जब तक कोई भी लड़की डर में जी रही है, तब तक टैगोर का सपना अधूरा है. किसी बच्ची की सुरक्षा का अर्थ केवल उसके शरीर की रक्षा नहीं, बल्कि उसकी आत्मा को मुक्त करना है, उसे गरिमा और समान अवसर के साथ उड़ने देना है.” उन्होंने कहा कि समाज को अब उन “मृत आदतों के रेगिस्तान” से बाहर निकलना होगा, जिनका ज़िक्र टैगोर ने किया था, यानी उन पितृसत्तात्मक सोचों से जो लड़कियों की आज़ादी को सीमित करती हैं.
हर बेटी के आत्मविश्वास में भारत का भविष्य
आखिर में उन्होंने ये कहकर कार्यक्रम का समापन किया कि जब हर बेटी निर्भीक होकर आगे बढ़ेगी, जब वह सम्मान और अवसर के साथ अपनी मंज़िल चुनेगी, तभी हम गर्व से कह पाएंगे कि भारत सच में उस ‘स्वर्ग जैसी आज़ादी’ में जाग गया है, जिसका सपना टैगोर ने देखा था.” कार्यक्रम का समापन इस संकल्प के साथ हुआ कि बालिकाओं की सुरक्षा केवल कानून का विषय नहीं, बल्कि पूरे समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है.