20 रुपये में आती है 100 में बिकने वाली खांसी की दवा! जानिए दवाइयों में कितना कमाते हैं मेडिकल वाले?

Shivam
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Reporter The Printlines (Part of Bharat Express News Network)
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जब आप मेडिकल स्टोर से ₹100 की कोई दवा खरीदते हैं, तो क्या आपने कभी यह सोचा है कि वह दवा दुकानदार को कितने में मिलती है? शायद नहीं. लेकिन, जब आप इसका असली आंकड़ा जानेंगे, तो हैरान रह जाएंगे. दवाओं की वास्तविक लागत और MRP के बीच का अंतर इतना अधिक होता है कि फार्मा इंडस्ट्री को भारत के सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाले कारोबारों में गिना जाता है.

इस मुनाफे के पीछे का सच जानने के लिए हमने बात की अनुभवी दवा डिस्ट्रीब्यूटर अनीष से जो पिछले 15 सालों से फार्मा सेक्टर में काम कर रहे हैं और दवाओं की सप्लाई चेन को बारीकी से समझते हैं. उन्होंने बताया कि दवा की MRP और उसकी असली लागत में जो अंतर है, वो आम आदमी की सोच से कहीं ज्यादा है.

फार्मा कंपनियों का गणित

अनीष बताते हैं कि दवाइयों पर मुनाफा अलग-अलग कैटेगरी के हिसाब से तय होता है, और यह 20 प्रतिशत से शुरू होकर 90 प्रतिशत तक जा सकता है. आइए समझते हैं इन कैटेगरीज को:

ब्रांडेड फार्मा दवाइयां-

ब्रांडेड दवाएं वे होती हैं जिन्हें मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स डॉक्टरों को प्रमोट करते हैं. जब कोई डॉक्टर किसी खास ब्रांड की दवा अपनी पर्ची में लिखता है, तो मरीज के पास वही दवा खरीदने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. दवा डिस्ट्रीब्यूटर अनीष के अनुसार, इन दवाओं पर मेडिकल स्टोर को 20% से 30% तक का मुनाफा मिलता है.

जेनरिक दवाइयां-

जेनरिक दवाएं वही काम करती हैं जो ब्रांडेड दवाएं करती है. फर्क सिर्फ नाम और पैकेजिंग का होता है. सरकार भी इन्हें प्रमोट करती है, लेकिन दुकानदार तब ही इन्हें बेचते हैं जब ग्राहक खुद मांग करे या उन्हें खासतौर पर ऑफर किया जाए. इन दवाओं पर 50% से 75% तक का मार्जिन होता है. उ

दाहरण के तौर पर, एक जेनरिक खांसी की सिरप की बनावट लागत सिर्फ ₹8 होती है. यह दुकानदार को ₹20–30 में मिलती है, जबकि उसकी MRP ₹80 से ₹100 तक रखी जाती है. यहीं से निकलता है दुकानदार और सप्लायर का सबसे भारी मुनाफा.

मोनोपोलाइज्ड कंपनियां-

इस श्रेणी की दवाइयों में कंपनियां खास डॉक्टरों को जोड़ती हैं और उन्हें उस दवा को लिखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं. इनमें डॉक्टरों को भी कमीशन या गिफ्ट्स दिए जाते हैं. इसमें दुकानदार को 30-35% तक का प्रॉफिट मार्जिन मिल जाता है. अनीष बताते हैं कि सरकार ने नियम बना रखा है कि किसी भी दवा में सक्रिय सामग्री 90% से कम और 110% से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

यानी एक दवा में अगर 90% सामग्री है, तब भी वह वैध मानी जाती है. कुछ कंपनियां न्यूनतम 90% तक ही सामग्री डालती हैं ताकि लागत कम आए और मुनाफा ज्यादा हो. इसलिए एक दवा जिसकी MRP 100 रुपये है, वह बड़ी कंपनी को करीब 65 रुपये में और जेनरिक बनाने वाले को मात्र 25 रुपये में तैयार हो जाती है.

दवा का कारोबार क्यों है मुनाफे वाला?

एक आम खांसी की दवा जिसकी MRP ₹100 है, वह मेडिकल स्टोर को केवल ₹20 से ₹30 में मिलती है. यानी मुनाफे का अंतर तीन से चार गुना तक होता है. फार्मा कंपनियां जानबूझकर उत्पादन लागत को कम रखती हैं, ताकि अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सके. वहीं, ग्राहक अक्सर डॉक्टर की लिखी दवा ही खरीदने को मजबूर होता है. ऐसे में उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता.

सरकार ने इस स्थिति को सुधारने के लिए जनऔषधि केंद्र जैसे विकल्प शुरू किए हैं, जहां सस्ती और जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. लेकिन समस्या यह है कि अधिकतर लोग इनके बारे में जानकारी नहीं रखते और डॉक्टर भी जेनरिक की बजाय ब्रांडेड दवाएं ही लिखते हैं. डिस्ट्रीब्यूटर अनीष का मानना है कि अगर मरीज खुद जागरूक हो जाए और डॉक्टर से जेनरिक विकल्प के बारे में पूछे, तो दवा का खर्च 50% से भी कम किया जा सकता है. दवाओं की दुनिया सिर्फ सेहत नहीं, एक बड़ा बाजार भी है और इस बाजार में जानकारी ही सबसे बड़ी ताकत है. अगली बार जब आप मेडिकल स्टोर से दवा लें, तो ये जरूर सोचें कि क्या आपके पैसे वाकई उस दवा की ‘कीमत’ चुका रहे हैं या किसी और के मुनाफे का हिस्सा बन रहे हैं.

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