रहस्‍यमयी मठ: वर्ष में एक बार दशहरे के दिन होती है पूजा, नागा साधुओं के 400 साल पुराने शस्‍त्रों से है नाता  

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Kankali Math In Chhattisgarh: हिन्‍दू धर्म में प्रतिदिन पूजा-पाठ का विधान है. लेकिन हमारे देश में एक ऐसा मंदिर है जहां वर्ष में केवल एक बार ही पूजा-अर्चना होती है. इस मंदिर की स्‍थापना नागा साधुओं द्वारा की गई थी. इस मंदिर का नाम कंकाली मठ है. कंकालीपारा स्थित इस मंदिर में शस्त्र पूजा की जाती है. शस्‍त्र पूजा का इतिहास काफी पुराना है. इतिहासकारों की मानें तो पहले यह इलाका श्मशान था. नागा साधु यहां आकर रहने लगे. नागा साधुओं को देवी ने स्वप्न में आकर उन्हें श्मशान में अपनी प्रतिमा होने की जानकारी दी.  

अनोखी है परंपरा  

हम जिस मंदिर की बात रहे हैं वो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के ब्राह्मणपारा में स्थित है. इसे कंकाली मठ के नाम से जाना जाता है. इसे वर्ष में केवल एक बार दशहरा के दिन ही खोला जाता है. आपको बता दें कि इस परंपरा को लगभग 400 वर्षों से निभाया जा रहा है. कहा जाता है कि नागा साधुओं ने ही मां कंकाली की प्रतिमा को मठ में स्थापित की थी. बाद में प्रतिमा को मंदिर में स्थानांतरित किया गया.

दशहरे के दिन आती हैं मां कंकाली

देवी की स्‍वप्‍न में दर्शन के बाद खुदाई में मां की प्रतिमा के साथ कई हथियार भी निकले थे. तब नागा साधुओं ने ही देवी की पुर्नस्थापना कर मंदिर का निर्माण करवाया था. अस्‍त्र शस्‍त्र को भी मठ में ही रहने दिया. बताया जाता है कि ये शस्‍त्र हजार से भी अधिक साल पुराने हैं. विजयादशमी पर यहां प्राचीन शस्त्रों के साथ नागा साधुओं के कमंडल, वस्त्र, चिमटा, त्रिशूल, ढाल, कुल्हाड़ी की भी पूजा की जाती है. मान्‍यता है कि मां कंकाली दशहरे के लिए यहां आती हैं.

कंकाली तालाब गहरी आस्‍था

कंकाली मंदिर को लेकर एक अन्‍य मान्‍यता यह भी है कि मंदिर के स्थान पर पहले यह श्मशान था जिसकी वजह से दाह-संस्कार करने के बाद हड्डियां कंकाली तालाब में डाल दी जाती थी. इसी तरह कंकाल से कंकाली तालाब का नाम पड़ा. कंकाली तालाब में लोगों की गहरी आस्था जुड़ी है. लोगों का मानता है कि इस तालाब में स्नान करने  त्वचा संबंधी रोग दूर हो जाते हैं.

समाधियों पर मत्‍था टेकते हैं भक्‍त

13वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक मठ में ही पूजा की जाती थी. यह पूजा नागा साधु ही करते थे. 17वीं शताब्दी में नए मंदिर का निर्माण होने के बाद मां कंकाली की प्रतिमा को मंदिर में प्रतिष्ठापित किया गया. उस समय मठ में रहने वाले नागा साधुओं में जब किसी नागा साधु की मृत्यु हो जाती तो उसी मठ में उनकी समाधि बना दी जाती थी. उन समाधियों पर भी भक्त शीश नवाते हैं.

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