पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ऐतिहासिक व्याख्यानों के 60वें वर्ष को ऐसे समय में मनाया जा रहा है, जब भाजपा के प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल के 11 वर्ष पूरे कर लिए हैं. नरेंद्र मोदी ने भले ही दीनदयाल उपाध्याय से मुलाकात न की हो या उन्हें सुना न हो, लेकिन वे निश्चित रूप से उपाध्याय के सबसे बेहतरीन व्याख्याताओं में से एक के रूप में उभरे हैं, जिन्होंने अपने शासन दृष्टिकोण और कार्य के माध्यम से उपाध्याय की आकांक्षाओं और आशाओं को अभिव्यक्त किया है. चार दशक से ज़्यादा के सार्वजनिक जीवन के दौरान मोदी को आंदोलन के कई दिग्गजों से मिलने-जुलने का मौक़ा मिला होगा, जिन्हें उपाध्याय ने ढाला और आकार दिया था.
आरएसएस प्रचारक उपाध्याय को 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (Dr. Shyama Prasad Mukherjee) के शिष्य के तौर पर नवगठित जनसंघ में भेजा गया था. उन्होंने अगले 15 सालों तक नई राजनीतिक पार्टी की नींव रखने का भार अपने कंधों पर उठाया और नेहरूवादी और नेहरूवादी युग के तुरंत बाद के सबसे बड़े नेताओं में से एक बनकर उभरे. मोदी, जो आरएसएस (RSS) प्रचारक हैं, को नवगठित भाजपा में नियुक्त किया गया और अगले तीन दशकों तक, विभिन्न स्तरों पर नई पार्टी के लिए काम किया, जब तक कि उन्होंने इसके लिए एक ऐतिहासिक मार्ग की पटकथा और रूपरेखा तैयार नहीं कर दी, जो भारत की दिशा बदल रहा है.
दीनदयाल उपाध्याय (Deendayal Upadhyay) ने भारतीय राजनीति में एक वैकल्पिक ध्रुव के रूप में जनसंघ की स्थापना की, जबकि मोदी तीन दशकों में भाजपा को भारत में प्रमुख राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित करने में सफल रहे हैं. इन तीन दशकों में गठबंधन की राजनीति और अस्थिर सरकारों का बोलबाला रहा है, जिन्हें राजनीतिक मांगों और अल्पकालिक गणनाओं के तहत अलग-अलग दिशाओं में खींचा गया। इन तीन दशकों के दौरान, इस बात का कोई बड़ा आख्यान नहीं था कि भारत को कहाँ होना चाहिए और उस स्थिति तक कैसे पहुँचना चाहिए.
नरेंद्र मोदी ने इसे पूरी तरह से बदल दिया है. उन्होंने “विकसित भारत” और “अमृत काल” के लक्ष्य से गढ़ी और गढ़ी गई एक बड़ी कहानी तैयार की है. दीनदयाल उपाध्याय के प्रत्यक्ष राजनीतिक शिष्य और सहयोगी अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्ण कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे. वाजपेयी के छह साल के कार्यकाल में कई प्रमुख पहल की शुरुआत हुई, जिसमें शासन और नीतियों के कई पहलू परिलक्षित हुए, जिनकी वकालत उपाध्याय ने अपने लेखन, सार्वजनिक भाषणों और वार्ताओं में की थी. उपाध्याय के महासचिव के रूप में कार्यकाल के दौरान, जनसंघ ने भारत के परमाणु शक्ति बनने की आवश्यकता की वकालत की थी.
भारत को एक प्रमुख परमाणु शक्ति का दर्जा दिलाने वाले पहले बड़े फैसलों में से एक मई 1998 में परमाणु परीक्षण करने का वाजपेयी का फैसला था. वाजपेयी द्वारा शुरू किया गया प्रमुख ‘सर्व शिक्षा अभियान’, जिसमें विशेष रूप से सबसे हाशिए पर पड़े लोगों के बीच शिक्षा पर जमीनी स्तर पर व्यापक ध्यान केंद्रित किया गया था, शासन का एक और मील का पत्थर था, जिसने उपाध्याय के दर्शन और वंचितों और पीछे छूट गए लोगों को सशक्त और सुसज्जित करने की उनकी आशाओं को प्रकट किया. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 22-25 अप्रैल, 1965 को मुंबई के रामनारायण रुइया कॉलेज के मैदान में एकात्म मानव दर्शन के दर्शन पर अपने चार व्याख्यान दिए.
इन व्याख्यानों ने अंततः भारतीय जनसंघ और बाद में भाजपा के राजनीतिक दर्शन और कार्य की आधारशिला रखी. यह पहली बार था कि स्वतंत्रता के बाद गठित एक राजनीतिक दल ने एक राजनीतिक दर्शन पर चर्चा, बहस और अभिव्यक्ति की, जिसे उसने एक राजनीतिक कार्यक्रम के माध्यम से मूर्त रूप देने और व्यक्त करने का प्रयास किया. दर्शनशास्त्र भारत की सभ्यतागत शक्तियों को उन्मुक्त करने, अपनी शक्तियों के माध्यम से उसे आत्मनिर्भर बनाने, उसे “विश्वामित्र” (विश्व का मित्र) के रूप में अपना उचित स्थान पुनः प्राप्त करने की बात करता है.
एक ऐसी शक्ति जो सौम्य है, लेकिन शक्तिहीन नहीं है. उपाध्याय ने भारत की अपनी जन्मजात शक्तियों और अनुभवों के आधार पर अपनी सर्वांगीण प्रगति की बात की. उपाध्याय के दार्शनिक सिद्धांतों पर जोर देते हुए कहा कि समृद्धि की ओर यह राष्ट्रीय यात्रा समतापूर्ण होनी चाहिए, किसी को भी पीछे नहीं छोड़ा जा सकता. उपाध्याय के व्याख्यानों में एक विकसित भारत और समृद्ध भारत के निर्माण की आशा झलकती है. अपने समापन व्याख्यान में दीनदयाल उपाध्याय ने लक्ष्य को परिभाषित करते हुए कहा: “हमारा लक्ष्य केवल संस्कृति की रक्षा करना नहीं है, बल्कि इसे पुनर्जीवित करना है ताकि यह गतिशील और समय के साथ तालमेल बिठा सके.
हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा राष्ट्र इस नींव पर मजबूती से खड़ा रहे और हमारा समाज एक स्वस्थ, प्रगतिशील और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने में सक्षम हो…” उपाध्याय ने एक ऐसे भारत के निर्माण की बात की, जो “अपने दायरे में आने वाले प्रत्येक नागरिक को अपनी कई तरह की छिपी हुई क्षमताओं को विकसित करने में सक्षम बनाएगा…” प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी पिछले ग्यारह वर्षों में इन बुनियादी शासन मापदंडों से प्रेरित रहे हैं। पीएम मोदी ने सामूहिक राष्ट्रीय समृद्धि और शक्ति पर जोर दिया है. एक स्वस्थ और उद्देश्यपूर्ण जीवन को साकार करना उनके शासन कार्य का मुख्य लक्ष्य रहा है.
नरेन्द्र मोदी का “गरीब कल्याण” का विजन, सबसे हाशिए पर पड़े लोगों तक पहुंचने का उनका शासन दर्शन, आत्मनिर्भरता पर उनका निरंतर जोर, भारत के राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उनका अडिग समर्थन, उनकी “पंचामृत” विदेश नीति, जो एक शक्तिहीन और रक्षात्मक “पंचशील”-चालित विदेश नीति से एक बदलाव है, भारत की सीमाओं को सुरक्षित और विकसित करने पर उनका ध्यान, “जनभागीदारी” की उनकी अवधारणा, “एक राष्ट्र, एक संविधान” के वादे को पूरा करना, “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” का उनका विजन, “विकास और विरासत” पर उनका जोर, जिसका अर्थ है हमारी राष्ट्रीय विरासत और उत्तराधिकार के मूल सिद्धांतों के संरक्षण और प्रसार के साथ-साथ विकास, मूल रूप से और आंतरिक रूप से दीनदयाल उपाध्याय के विचार और दृष्टि को प्रतिबिंबित करते हैं.