अगले तीन वित्त वर्षों में भारत की सीमेंट इंडस्ट्री की क्षमता 170 मिलियन टन बढ़ने का अनुमान

Shivam
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Reporter The Printlines (Part of Bharat Express News Network)
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भारत की सीमेंट उद्योग क्षमता वित्त वर्ष 2026 से 2028 के बीच बढ़कर 160 से 170 मिलियन टन तक पहुंचने का अनुमान है. यह वृद्धि पिछले तीन वित्त वर्षों में दर्ज हुई 95 मिलियन टन की बढ़ोतरी से कहीं अधिक होगी. बुधवार को जारी क्रिसिल की रिपोर्ट के अनुसार, सीमेंट सेक्टर की क्षमता में यह तेज़ विस्तार मजबूत मांग और उच्च क्षमता उपयोग के चलते संभव हो रहा है. रिपोर्ट में बताया गया कि तेज विस्तार के कारण अगले तीन वर्षों में इस क्षेत्र में पूंजीगत व्यय 1.2 लाख करोड़ रुपए रहने का अनुमान है, जो कि पिछले तीन वित्त वर्ष में किए गए पूंजीगत व्यय की तुलना में 50% अधिक है.
ज्यादातर हिस्सा ब्राउनफिल्ड के कारण विस्तार में जोखिम कम है और इसमें से ज्यादातर हिस्से को अच्छे ऑपरेटिंग कैश फ्लो से फंड किया जाएगा. रिपोर्ट के अनुसार, इस वृद्धि के चलते सीमेंट कंपनियों का वित्तीय लीवरेज, जिसे नेट डेट टू ईबीआईटीडीए अनुपात से मापा जाता है, स्थिर रहने की उम्मीद है. इससे उनकी क्रेडिट प्रोफाइल को भी स्थिर बनाए रखने में मदद मिलेगी. यह विश्लेषण 17 प्रमुख सीमेंट निर्माताओं पर आधारित है, जो देश की 31 मार्च 2025 तक स्थापित 668 मीट्रिक टन उत्पादन क्षमता में लगभग 85% हिस्सेदारी रखते हैं.
पिछले तीन वित्तीय वर्षों में, सीमेंट की मांग में जबरदस्त वृद्धि देखी गई है और उत्पादन की मात्रा 9.5% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) के साथ बढ़ी है, जो बुनियादी ढांचे और आवास जैसे प्रमुख क्षेत्रों द्वारा संचालित है. परिणामस्वरूप, पिछले वित्तीय वर्ष में क्षमता उपयोग लगभग 70% तक बढ़ गया, जबकि दशकीय औसत 65% था. क्रिसिल रेटिंग्स के निदेशक आनंद कुलकर्णी ने कहा कि वित्त वर्ष 2026-2028 में, सीमेंट निर्माताओं को सालाना 30-40 मीट्रिक टन की अच्छी वृद्धिशील मांग की उम्मीद है, जिससे क्षमताओं में मजबूत वृद्धि होगी.
रिपोर्ट के अनुसार, सीमेंट सेक्टर में क्षमता विस्तार तो पर्याप्त है, लेकिन इससे जुड़े जोखिम अपेक्षाकृत कम माने जा रहे हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि करीब 65% नई क्षमता ब्राउनफील्ड परियोजनाओं के तहत विकसित की जा रही है. इन परियोजनाओं में निर्माण की अवधि कम, भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता सीमित, और परिणामस्वरूप पूंजीगत लागत व कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियाँ भी अपेक्षाकृत कम रहती हैं.
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