Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, मन के कार्यों को देखना- मन को वश में करने का एक बड़ा उत्तम साधन है। मन से अलग होकर निरंतर मन के कार्यों को देखते रहना। जब तक हम मन के साथ मिले हुए हैं तभी तक मन में इतनी चंचलता है। जिस समय हम मन के द्रष्टा बन जाते हैं उसी समय मन की चंचलता मिट जाती है। वास्तव में तो मन से हम सर्वथा भिन्न ही हैं। किस समय मन में क्या संकल्प होता है, इसका पूरा पता हमें रहता है।
बंबई में बैठे हुए एक मनुष्य के मन में कलकत्ता के किसी दृश्य का संकल्प होता है, इस बात को वह अच्छी तरह जानता है। यह निर्विवाद बात है कि जानने या देखने वाला, जानने की या देखने की वस्तु से सदा अलग होता है। आंख को आंख नहीं देख सकती। इस न्याय से मन की बातों को जो जानता या देखता है वह मन से सर्वथा भिन्न है, भिन्न होते हुए भी वह अपने को मन के साथ मिला लेता है, इसी से उनका जोर पाकर मन की उद्दडंता बढ़ जाती है। यदि साधक अपने को निरंतर अलग रखकर मन की क्रियाओं का दृष्टा बनकर देखने का अभ्यास करें तो मन बहुत ही शीघ्र संकल्प विकल्प रहित हो सकता है।



