Mumbai: बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले सुनाते हुए पुणे की सत्र अदालत के फैसले को रद्द कर दिया है, जिसके तहत पत्नी को उकसाने के आरोप में उसके पति को तीन साल की सजा सुनाई गई थी. बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि किसी महिला के दुखी रहने या रोने की बात कहने भर से उसके पति या ससुराल वालों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. यहां तक कि ना ही भारतीय दंड संहिता की धारा 498, (क्रूरता) के तहत कार्रवाई की जा सकती. कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि ऐसे आरोपों को साबित करने के लिए ठोस सबूत की जरुरत है.
आत्महत्या के मामले में ठहराया गया था दोषी
यह मामला 1998 में पुणे की एक सत्र अदालत के फैसले से जुड़ा है. जब रामप्रकाश मनोहर को उसकी पत्नी रेखा की आत्महत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था. रेखा की माता-पिता ने उसके पति को आत्महत्या के मामले में दोषी ठहराया. रेखा के लापता होने पर माता-पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी, लेकिन उसमें प्रताड़ना या क्रूरता का कोई जिक्र नहीं था.
सत्र अदालत की तीन साल की सजा रद्द
पुणे की सत्र अदालत ने 17 नवंबर 1998 को पति को दोषी साबित कर दिया. कोर्ट ने मनोहर को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) और 498 (क्रूरता) के तहत दोषी ठहराया था. अब बॉम्बे हाईकोर्ट ने 1998 में सत्र अदालत की तीन साल की सजा रद्द कर दी. जस्टिस एम एम सथाये की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा कि रामप्रकाश गोविंद मनोहर ने अपनी पत्नी के साथ क्रूरता की या उसे आत्महत्या के लिए उकसाया, इसका कोई सबूत नहीं है.
संभव है कि वह नदी में फिसलकर गिर गई हो
कोर्ट ने यह भी कहा कि रेखा का ससुराल ऐसा इलाका था, जहां निजी शौचालय नहीं थे. ऐसे में यह भी संभव है कि वह नदी में फिसलकर गिर गई हो. अब बॉम्बे हाईकोर्ट ने 1998 में सत्र अदालत की तीन साल की सजा रद कर दी. कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि क्रूरता का वह जरूरी तत्व, जिसमें महिला को आत्महत्या के लिए उकसाने जैसा आचरण शामिल हो, स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है और न ही साबित हुआ है. कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर मृतक महिला दुखी रहती थी और रोती थी, यह मानने के लिए काफी नहीं है कि उसे परेशान किया गया था. कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि किसी भी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए पुख्ता सबूतों का होना बहुत जरूरी है. सिर्फ आरोप लगा देना काफी नहीं होता है.