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राजस्थान में पुलिस विभाग की सबसे ऊंची कुर्सी यानी डीजीपी (पुलिस महानिदेशक) की नियुक्ति को लेकर इन दिनों जबरदस्त राजनीतिक हलचल मची हुई है. वजह हैं 1991 बैच के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी डॉ. रवि प्रकाश मेहरदा, जिन्हें हाल ही में कार्यवाहक डीजीपी बनाया गया है. वो भी ऐसे वक्त में जब उनकी सेवानिवृत्ति बस कुछ ही दिन दूर है.
डॉ. मेहरदा ने 1998 बैच के आईपीएस अधिकारी उत्कल रंजन साहू के राजस्थान लोक सेवा आयोग अध्यक्ष बनाए जाने के बाद डीजीपी का कार्यभार संभाला. लेकिन यहां पेच यह है कि मेहरदा खुद 30 जून को रिटायर हो रहे हैं, यानी उन्हें इस पद पर कुल मिलाकर केवल 20 दिनों के लिए मौका मिला. शुरुआत में यह महज एक प्रक्रियात्मक फैसला माना गया, लेकिन अब ये नियुक्ति धीरे-धीरे राजनीतिक तूफान में बदलती जा रही है.
दलित समुदाय में नाराजगी
डॉ. मेहरदा दलित समुदाय से आते हैं और उनकी नियुक्ति को सामाजिक प्रतिनिधित्व की दिशा में एक मजबूत संदेश माना गया था, लेकिन अब उनके कार्यकाल की छोटी अवधि ने दलित समुदाय में नाराजगी पैदा कर दी है. राज्य के दलित संगठन, पूर्व आईपीएस अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता और भाजपा के कुछ नेता मिलकर उनके कार्यकाल को बढ़ाने की मांग कर रहे हैं.
डॉ. मेहरदा का कार्यकाल बढ़ाने की मांग को लेकर लोग खुलकर समर्थन में आ गए हैं. दलित समुदाय के द्वारा याचिकाएं भेजी जा रही हैं, सोशल मीडिया पर अभियान चल रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा तक को चिट्ठियां लिखी जा रही हैं. मेहरदा के समर्थकों का कहना है कि इतने सीनियर अधिकारी को केवल “प्रतीकात्मक” बनाकर छोड़ देना सही नहीं है.
खुद मेहरदा भी नहीं चाहते थे DGP की कुर्सी?
सूत्रों की मानें तो डॉ. मेहरदा खुद शुरू में इस पद को स्वीकारने को लेकर थोड़े हिचकिचा रहे थे। क्योंकि उन्हें पता था कि उनका कार्यकाल काफी छोटा है. जिसमें ना तो बड़े फैसले लिए जा सकते हैं, ना ही कोई ठोस बदलाव लाया जा सकता है. इसके बावजूद, सरकार ने उन्हें जिम्मेदारी सौंपी।
सरकार के पास विकल्प भी है लेकिन उलझन भी
फिलहाल सरकार ने सात वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के नामों का पैनल केंद्र को भेजा है। यूपीएससी उसमें से तीन नाम शॉर्टलिस्ट करेगा और फिर सरकार को फाइनल डीजीपी चुनना होगा। लेकिन इसी बीच एक विकल्प और भी है सरकार चाहे तो नियम 16 के तहत केंद्र से मंजूरी लेकर मेहरदा का कार्यकाल तीन महीने तक बढ़ा सकती है। अब देखना ये है कि भाजपा इस संवेदनशील मसले पर क्या फैसला लेती है। एक तरफ नियमों का पालन है तो दूसरी तरफ सामाजिक और राजनीतिक संदेश देने का दबाव भी है.