Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, प्रभु के चरणों में जो हमेशा सद्भाव रखता है, प्रभु के प्रत्येक विधान को जो आनंद के भाव से स्वीकार करता है, वह प्रभु का ही बन जाता है और उसे सभी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। परंतु नम्रता के बिना यह सद्भाव जागृत नहीं होता। जहां अहंकार है, वहां सद्भाव हो ही नहीं सकता।
जब मनुष्य को अपनी स्वयं की भूल समझ में आती है और उसे स्वीकार करने को नम्रता जब अंतर से उत्पन्न होती है, तभी हृदय सद्भावना से पूरी तरह भरता है।आज तो मनुष्य को अपनी भूल ही दिखाई नहीं देती। दिखाई भी दे तो उसे छुपाने की प्रवृत्ति पैदा होती है। फिर उसे स्वीकार करने की नम्रता तो पैदा ही कहां से हो और यदि यह नम्रता न हो तो फिर प्रभु के चरणों में अनुराग और प्रभु के प्रति अंतर का सद्भाव कहां से उत्पन्न हो। मनुष्य मलिक नहीं प्रभु का मुनीम है।



