Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, किसी भी युक्ति से, किसी प्रकार से भी मन को विषयों से हटाकर परमात्मा में लगाने की चेष्टा करना चाहिए। जैसे चंचल जल में रूप विकृत दिखाई पड़ता है उसी प्रकार चंचल चित्त में आत्मा का यथार्थ स्वरूप प्रतिबिम्बित नहीं होता।

परंतु जैसे स्थिर जल में प्रतिबिंब जैसा होता है वैसा ही दिखता है इसी प्रकार केवल स्थिर मन से ही आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है। अतएव प्राणपण से मन को स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिए। अब तक जो इस मन को स्थिर कर सके हैं वे ही उस श्याम सुंदर के नित्य प्रसन्न नवीन – नील – नीरद प्रफुल्ल मुखारविंद का दर्शन कर अपना जन्म और जीवन सफल कर सके हैं।
जिसने एक बार भी उस अनूप रूप शिरोमणि के दर्शन का संयोग प्राप्त कर लिया वही धन्य हो गया। उसके लिए उस सुख के सामने और सारे सुख फीके पड़ गये। उस लाभ के सामने और सारे लाभ नीचे हो गये। यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। जिस लाभ को पा लेने पर उससे अधिक और कोई सा लाभ भी नहीं जंचता। यही योग साधना का चरम फल है अथवा यही परम योग है।


