Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, मन चाहता है सुख। जब तक इसे ईश्वर की भक्ति में सुख नहीं मिलता-तब तक विषयों में सुख ढूंढता है,इसीलिए यह विषयों में रमता है। जब अभ्यास से विषयों में दुःख और परमात्मा में सुख होने लगेगा, तब यह स्वयं ही विषयों को छोड़कर परमात्मा की और दौड़ेगा।
परंतु जब तक ऐसा न हो तब तक निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। यह मालूम होते ही कि मन अन्यत्र भागा है, तत्काल इसे पकड़ना चाहिये। इसको पक्के चोर की तरह भागने का अभ्यास है। जिस जिस कारण से मन सांसारिक पदार्थों में विचरे उसे रोक कर परमात्मा में स्थिर करें। मन पर ऐसा पहरा बैठा दें कि यह भाग ही न सके। यदि किसी प्रकार भी न मानें तो फिर इसे भागने की पूरी स्वतंत्रता दे दी जाए, परंतु यह जहां जाये वहीं पर परमात्मा की भावना की जाए, वहीं पर इसे परमात्मा के स्वरूप में लगाया जाए, इस उपाय से भी मन स्थिर हो सकता है।
चित्त का विक्षेप दूर करने के लिए पांच तत्वों में से किसी एक तत्व का अभ्यास करना चाहिए। एक तत्व के अभ्यास का अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि किसी एक वस्तु की या किसी मूर्ति विशेष की तरफ एक दृष्टि से देखते रहना। जब तक आंखों की पलकें न पड़े या आँखो में जल न आ जाये, तब तक उस एक ही चिन्ह की तरफ देखते रहना चाहिए।चिन्ह धीरे-धीरे छोटा करते रहना चाहिए। अंत में उस चिन्ह को बिल्कुल ही हटा देना चाहिए। अवलोकन न करने पर भी दृष्टि स्थिर रहे।
ऐसा हो जाने पर चित्त विच्छेप नहीं रहता। इस प्रकार प्रतिदिन कोई साधक आधे घंटे भी अभ्यास करे तो मन के स्थिर होने में अच्छी सफलता मिल सकती है। इसी प्रकार दोनों ध्रुवों के बीच में दृष्टि जमाकर जब तक आंखों में जल न आ जाये तब तक देखते रहने का अभ्यास किया जाता है। इससे भी मन निश्चल होता है। इस प्रकार के अभ्यास में नियमित रुप से जो जितना अधिक समय दे सकेगा उसे उतना ही अधिक लाभ होगा।


