विपक्षी गठबंधन ने रोचक बनाया 2024 का महासमर, नए नाम से बनेगा काम?

Upendrra Rai
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Chairman & Managing Director, Editor-in-Chief, The Printlines | Bharat Express News Network
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Saturday Special Article: व्हाट इज इन अ नेम? चार शताब्दी पहले अंग्रेजी भाषा के विख्यात लेखक विलियम शेक्सपियर ने जब अपनी कालजयी कृति ‘रोमियो एंड जूलियट’ में इस वाक्यांश की रचना की थी तब उन्हें लगा होगा कि आखिर एक नाम का क्या महत्व हो सकता है? तब इस बात पर शेक्सपियर से बहुतों की सहमति भी रही होगी। लेकिन कालांतर में इस सोच को लगातार वैचारिक चुनौती मिलती गई है। अगर आज के दौर में कोई यह पूछे कि नाम में क्या रखा है, तो निश्चित ही जवाब मिलेगा – सब कुछ। देश में अगले साल होने जा रहे आम चुनाव के लिए विपक्षी गठबंधन के नाम के संदर्भ में तो यह बात एकदम सटीक बैठती है। इस गठबंधन में शामिल 26 दलों ने जिस नाम से अगले साल आम चुनाव में उतरने का फैसला किया है वो है इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस यानी इंडिया। गठबंधन के इस नाम को लेकर देश में एकाएक बड़ा राजनीतिक विमर्श खड़ा हो गया है और फिलहाल तो विपक्ष और पक्ष की तमाम राजनीति और रणनीति इसी नाम के आसपास केन्द्रित हो गई है। दरअसल यह इंडिया शब्द राष्ट्रीयता की उस भावना को प्राप्त करने का प्रयास है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने विपक्ष से छीन लिया है। पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि किस तरह प्रधानमंत्री मोदी भारत के पर्याय बन गए हैं। उन पर किसी भी हमले को भारत पर हमले का केन्द्र सरकार और बीजेपी संगठन का दावा करोड़ों देशवासियों को यथार्थ के करीब लगता है।

विपक्ष ने अपने गठबंधन का नाम इंडिया रखकर इसे दावे को चुनौती देने का प्रयास किया है। इसलिए अब ऐसे सवाल तात्कालिक चर्चा का केन्द्र बन गए हैं कि क्या सत्ता पक्ष अब इस शब्द पर वैसे ही हमले कर पाएगा जैसा उसने यूपीए के लिए किया है? यूपीए को इंडिया से बदल दिया जाए तो क्या यह कहना अब उतना ही आसान रह पाएगा कि इंडिया भारत-विरोधी है या इंडिया पाकिस्तान-समर्थक है? सवाल यह भी है कि क्या पिछले 9 साल से भी ज्यादा समय से देश पर निष्कंटक राज कर रहा सत्ता पक्ष का गठबंधन एनडीए भी विपक्षी गठबंधन के इस नए नाम से दबाव में है? इस सवाल के जवाब की कई परतें हो सकती हैं लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि लोकप्रियता के शिखर पर आसीन प्रधानमंत्री मोदी जैसे मंझे हुए राजनेता को भी तात्कालिक प्रसंग में 25 साल पुराने हो चुके एनडीए की नई परिभाषा गढ़ने की आवश्यकता का अनुभव हुआ है। नए नाम के साथ और भी कई नए सवाल हवा में तैरने लगे हैं? मसलन क्या महज एक नया गठबंधन कमजोर दिख रहे विपक्ष को जोर मारने लायक शक्तिमान बना देगा। देश की राजनीति में विपक्ष कितना भी खंडित या हाशिए पर हो, वो जब एकजुट हुआ है उसने सत्ता में मौजूद पार्टी को नुकसान पहुंचाया है।

1977 में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के खिलाफ जनता पार्टी, 1988 में राजीव गांधी सरकार के सामने वीपी सिंह का राष्ट्रीय मोर्चा, 2004 में एनडीए सरकार के विरुद्ध कांग्रेस, डीएमके और आरजेडी का संयुक्त मोर्चा (जो आगे चलकर संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा यानी यूपीए बना) जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं। कोई यह तर्क दे सकता है कि 2024 अलग है। बीजेपी और विपक्ष की शक्तियों और लोकप्रियता में जमीन-आसमान का अंतर है। लेकिन इस तरह के तर्क तो 1967, 1977 और 1989 में कांग्रेस ने भी पेश किए गए थे और हम सभी जानते हैं कि इसका अंत कैसे हुआ। तब कांग्रेस के पास जो शक्तियां होती थीं, आज की बीजेपी उससे कहीं अधिक शक्तिशाली हो चुकी है। लेकिन कांग्रेस भी कह सकती है कि मल्लिकार्जुन खरगे के नेतृत्व में उसके अच्छे दिन धीरे-धीरे लौट रहे हैं। कर्नाटक, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी की आंतरिक गुटबाजी पर लगाम लगी है, हिमाचल और कर्नाटक में उसे जीत मिली है, भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गांधी की एक गंभीर राजनेता की छवि बनाई है आदि-आदि।

नए गठबंधन में भी कांग्रेस को भरपूर तवज्जो मिल रही है। लेकिन देखा जाए तो गठबंधन में रहने से कांग्रेस को सीधे-सीधे कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा। बीजेपी से जिन 190 सीटों पर उसका आमने-सामने का मुकाबला है वहां 2019 में तीसरी पार्टी को कुल पड़े वोट में से केवल चार फीसद वोट मिला था जबकि इन सीटों पर बीजेपी की बढ़त 15 फीसद के आसपास रही थी। यानी इन सीटों पर तीसरी पार्टी नहीं भी रहे तो भी कांग्रेस को बहुत जोर लगाना पड़ेगा। इससे उलट जिन 185 सीटों पर बीजेपी का क्षेत्रीय दलों से मुकाबला था, वहां बीजेपी की बढ़त सात फीसद रही थी। गौर करने वाली बात है कि इन सीटों पर तीसरी पार्टी को औसतन सात फीसद वोट ही मिले थे और इनमें से 88 सीटों पर यह तीसरी पार्टी कांग्रेस ही थी। यानी अपने राष्ट्रीय स्वरूप के साथ ही कांग्रेस अपने वोट को विपक्ष के साझा उम्मीदवार के पक्ष में शिफ्ट कर गठबंधन की जीत में बड़ी भूमिका निभा सकती है। एक सवाल सीट बंटवारे को लेकर है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई बड़ी दिक्कत आनी चाहिए। इंडिया गठबंधन में शामिल दलों की 2019 में जीती हुई सीटों को जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा 144 का बैठता है।

275 से 300 के बीच सीटें ऐसी हैं जिन पर इंडिया गठबंधन वाले दलों का प्रत्याशी ही दूसरे नंबर पर रहा था। इसलिए अगर तमाम सीटों पर 2019 में नंबर एक या नंबर दो पर रहने वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने का मौका देने का फॉर्मूला आजमाया जाता है तो 425 के करीब सीटों पर विवाद की स्थिति नहीं बननी चाहिए। जहां पेंच फंस सकता हैं वो हैं केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब की सीटें। नंबर एक और नंबर दो पर रहने वाली पार्टियों में अमूमन गठजोड़ नहीं होता है क्योंकि ऐसी स्थिति में कोई-न-कोई एक पार्टी का जनाधार खत्म हो जाता है और इस आधार पर मेरा अनुमान है कि पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच दोस्ताना लड़ाई होगी। वहीं, केरल में अगर कांग्रेस और लेफ्ट साथ आने के लिए तैयार हो जाते हैं तो यह स्वमेव बीजेपी को राज्य में पैर जमाने का मौका दे देगी। इसलिए वहां भी इंडिया गठबंधन में मुकाबला होगा। इसी तरह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच सहमति बन सकती है लेकिन लेफ्ट किसी भी सूरत में ममता बनर्जी के साथ नहीं आएगा। तो कम-से-कम इन तीनों राज्यों में तो ऐसा लगता है कि इंडिया गठबंधन साथ में नहीं बल्कि आपस में लड़ेगा लेकिन इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि जीतने वाला कोई बीजेपी विरोधी दल ही होगा जो आखिर में इंडिया गठबंधन को ही समर्थन देगा।

फिर तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्य भी हैं जहां न बीजेपी मजबूत है, न ही कांग्रेस। नतीजे आने के बाद इनका रुख देखना दिलचस्प होगा। अब सवाल है कि विपक्ष का चुनावी अभियान कैसा होना चाहिए? मोदी हटाओ, लोकतंत्र बचाओ का नकारात्मक अभियान लक्ष्य सिद्धि के लिए सकारात्मक साबित नहीं हो पाएगा। 2019 में ‘चौकीदार चोर है’ वाले अभियान का क्या हश्र हुआ था सबको पता है। इंडिया गठबंधन फिलहाल एजेंसियों के दुरुपयोग, लोकतंत्र खतरे में, मणिपुर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर केन्द्र सरकार की नाकामी, मानवाधिकार, महंगाई, बेरोजगारी जैसे मामलों पर ज्यादा मुखर है। निश्चित ही ये महत्वपूर्ण मुद्दे हैं लेकिन लंबे समय तक केवल मुद्दों पर शोर मचाने से भी चुनावी फसल नहीं कटने वाली। उसके लिए इंडिया गठबंधन को इन समस्याओं का हल भी सामने लाना होगा जैसे कि सत्ता में आने पर वो बेरोजगारी को कैसे दूर करेगी, कैसे नए रोजगार पैदा करेगी, महंगाई कम करने का उसका क्या प्लान है? याद करिए 2014 में नरेन्द्र मोदी का चुनावी अभियान इसी बात पर केन्द्रित था कि वो सत्ता में आने पर यूपीए शासन प्रणाली की कमियों को कैसे दूर करेंगे और इसके लिए उन्होंने तत्कालीन गुजरात मॉडल को देश के सामने रखा था।

सबसे बड़ा सवाल नेतृत्व के चेहरे का होगा। 2019 में एक नामी एजेंसी के सर्वे के अनुसार 37 फीसद मतदाताओं ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे के आधार पर मतदान किया था। इसका मतलब यह होगा कि विपक्षी गठबंधन अगर बिना किसी चेहरे के मैदान में उतरता है तो उसके सामने इस 37 फीसद वोट का बड़ा हिस्सा गंवाने का खतरा रहेगा। ऐसे में विपक्षी गठबंधन के सामने दो विकल्प दिखते हैं – पहला यह कि वो किसी चेहरे के साथ सामने लाए। राहुल गांधी, खरगे, नीतीश, शरद पवार, ममता, स्टालिन या कोई अन्य जिसके आसपास अगले 10 महीने में वोटरों की लामबंदी की जाए। दूसरा विकल्प बिना चेहरे के स्थानीय आधार पर सीट-दर-सीट की लड़ाई का हो सकता है जैसा कांग्रेस ने पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में और फिर अभी हाल में हिमाचल और कर्नाटक में भी सफलतापूर्वक किया है। मुझे ऐसा लगता है कि विपक्ष आखिर में इस लड़ाई को प्रधानमंत्री मोदी बनाम इंडिया की शक्ल देने की कोशिश करेगा। दूसरी तरफ एनडीए की बात करें तो 9 साल से कुछ ज्यादा के शासन के बाद भी प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता संदेह से परे है।

ऐसे में एनडीए के खिलाफ विपक्षी गठबंधन अगर किसी तरह प्रत्येक सीट पर एक साझा प्रत्याशी खड़ा करने में कामयाब हो भी जाता है तो भी बीजेपी को ज्यादा-से-ज्यादा 70-80 सीटों पर ही नुकसान पहुंचा सकता है। तब भी बीजेपी बहुमत से ज्यादा दूर नहीं होगी। सरकार बनाने के लिए उसे बड़ी-बड़ी पार्टियों की जरूरत ही नहीं है। राज्यों की सीमाओं में बंधे छोटे-छोटे दल भी बीजेपी की नाव को पार लगा सकते हैं। एनडीए गठबंधन में 39 दलों की उपस्थिति की यही प्रमुख वजह है – जैसे उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर का उदाहरण ही ले लिया जाए। कई लोग कह सकते हैं कि मोदी और योगी की जोड़ी वैसे ही उत्तर प्रदेश में अपराजेय है। इसके बावजूद राजभर को लाने से बीजेपी ने पूर्वांचल में बनारस और गोरखपुर के बीच की छह लोकसभा सीटों को सुरक्षित कर लिया है।

2014 में जब राजभर का साथ था तो एनडीए ने इन सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया था लेकिन 2019 में जब राजभर अखिलेश के साथ चले गए तो एनडीए को इन सीटों पर नुकसान हुआ था। इस तरह राजभर को साथ लाकर एनडीए ने नुकसान को फायदे में बदलने की जुगत की है। बिहार और महाराष्ट्र को लेकर भी बीजेपी की यही रणनीति दिखाई दी है। सार में कहूं तो 2024 के आम चुनाव का अंजाम जो भी हो, इसका आगाज भारतीय राजनीति के लिए अच्छा दिख रहा है। एक मजबूत विपक्षी गठबंधन का प्राथमिक सकारात्मक लाभ यह है कि अगले चुनाव में जनादेश के लिए दो महत्वपूर्ण ध्रुवों के लड़ने से लोकतंत्र को लाभ होगा। किसी भी देश को एक पार्टी के प्रभुत्व से लाभ नहीं होता है और हर सरकार को एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता होती है।

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