Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, श्रीमद्भागवत वेद रूपी कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है। जिसमें गुठली, छिलका जैसा कुछ त्याज्य नहीं है, केवल रस ही रस है। अतः भक्तों को यह रस जीवन भर पीते रहना चाहिये। यदि कानों के द्वारा इस रस को पिया गया तो निश्चित है कि जीवन में शान्ति और अन्त में मुक्ति प्राप्त होगी। महर्षि वेदव्यास,अठारह पुराणों की रचना एवं एक लाख श्लोक वाला महाभारत लिखकर भी अशान्ति का अनुभव करते रहे।
अन्त में देवर्षि नारद के उपदेश से व्यास जी ने भागवत की रचना की और उन्हें शान्ति प्राप्त हुई। जैसे भांग खाने वाले को भांग खाने के बाद नशा बुलाना नहीं पड़ता, नशा अपने आप आता है, इसी तरह भागवत पढ़ने सुनने वालों को भक्ति रस अनायास प्राप्त हो जाता है।
मानव का जब भाग्य उदय होता है, तब उसे संतों का सानिध्य प्राप्त होता है और संत अपनी कृपा से मानव के भाग्य से छाये अन्धकार को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर देता है देव योनि के गण मानव कल्याण के लिये इस भौतिक जगत में सामान्य मानव के रूप में जन्म लेकर ईश्वर आराधना से संत पद प्राप्त करते हैं और अपने जन कल्याण के लक्ष्य को पूरा करते हैं। हम माया भ्रमित जन संत की लीला के रहस्य को जान नहीं पाते।
परन्तु संतवाणी और कृपा प्रसाद से उनके देवत्व का भान, धीरे-धीरे होने लगता है और यही से मानव का’ मैं कौन हूं ?सदा सर्वदा मेरा अपना कौन है? मैं ईश्वर दास हूं,सदा सर्वदा ईश्वर मेरा है इसका बोध होता है। श्रीमद् भागवत एक महान ग्रंथ है, क्योंकि इसमें ईश्वर की जीव पर पूर्ण कृपा का उल्लेख है यह मनुष्य की अज्ञान रूपी ग्रन्थि को खोलने की कुंजी है।
इस ग्रंथ में ईश्वर का प्रेम, भक्ति, ज्ञान शक्ति, कृपा शक्ति, समीपता, मधुर-स्पर्श, जीवों के प्रति दया का भाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जैसे बहेलियों को भी भगवान ने बैकुण्ठ वास दिया है। ईश्वर की कृपा से ही जीवन की सफलता है, यह भी इस ग्रन्थ में देखा जा सकता है।
जिस प्रकार आँख में अंजन लगाने से दृष्टि में बल आता है एवं दृष्टि छोटी-छोटी वस्तुओं को देखने में सक्षम हो जाती है, उसी प्रकार संत कृपा का अंजन जब मन की आंखों पर लगता है तो मन का मैल दूर होकर जीवन शान्तिमय, बुद्धि निर्मल और मन पवित्र हो जाता है। सभी हरि भक्तों को पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धनधाम आश्रम से साधु संतों की शुभ मंगल कामना।